Friday 10 January 2014

हज़ारे नहीं होते तो मोदी की दावेदारी मजबूत नहीं होती ---आशुतोष/तमाशे का इतिहास समझें---विजय राजबली माथुर


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अभी 100 दिन पूर्व ही अपने लेख द्वारा आशुतोष जी ने सिद्ध किया था कि हज़ारे आंदोलन द्वारा ही मोदी अगले पी एम के विकल्प के रूप में उभर कर आ सके थे। अब 10 दिन से मोदी के स्थान पर मनमोहन सिंह जी के प्रिय शिष्य अरविंद केजरीवाल साहब का नाम उभर गया है और खुद आशुतोष जी उनके सिपहसालार बन रहे हैं। 

1947 का भारत-विभाजन तो सांप्रदायिक आधार पर साम्राज्यवादी अमेरिका ने ब्रिटेन से करवा दिया था और पाकिस्तान पर उसका अप्रत्यक्ष नियंत्रण भी हो गया था जो अब भी बरकरार है। लेकिन नेहरू जी ने इजीप्ट के अब्दुल गामाँल नासर और यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो के साथ मिल कर 'गुट निरपेक्ष सम्मेलन' नामक तीसरा गुट बना लिया था और अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे झुके नहीं थे भले ही 1962 में उनके मित्र जान एफ केनेडी ने चीन के विरुद्ध सहायता का प्रस्ताव भी किया तो उसे भी ठुकरा दिया था। फिर 1965 में शास्त्री जी ने लिंडन जानसन के आगे न झुक कर अमेरिकी PL-480 स्कीम को खत्म कर दिया था।  PL-480 स्कीम के अंतर्गत अमेरिका गेंहू से शराब खींच कर फोकस गेंहू भारत को बेच कर उस धन से अपने दूतावास के माध्यम से ऐसा साहित्य प्रचारित कराता था जिससे समाजवाद/साम्यवाद के प्रति घृणा युवकों में भरी जाती थी।

रूस के सहयोग से जो बुनियादी ढांचा भारत ने मजबूत कर लिया था उसका लाभ मिलने का जब समय आया तब अमेरिका ने भारत के उद्योगपतियों को उकसा कर उसे हड़प लेने को प्रेरित किया। सिंडीकेट ने समाजवादी नमूने की नीतियों को छोडने का दबाव बनाया किन्तु  1969 में इंदिरा जी ने इन्दिरा कांग्रेस बना कर CPI के सहयोग से 14 बैंकों  का राष्ट्रीयकरण करके व राजाओं का प्रिवी पर्स समाप्त करके उनको झटक दिया था। 1971 में रिचर्ड निकसन के 7वां बेड़ा के बंगाल की खाड़ी में पहुँचने से पूर्व ही बांग्ला देश को आज़ाद करा लिया था। किन्तु उमाशंकर दीक्षित की सलाह पर  1975 में आपातकाल की घोषणा करके इन्दिरा जी अलोकप्रिय हो गईं थीं और 1977 में सांसद तक न निर्वाचित हो सकीं तब आपातकाल में RSS मुखिया मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस' से किए गुप्त समझौते के आधार पर 1980 का चुनाव RSS की 100 प्रतिशत सपोर्ट से जीता और समाजवादी नीतियों का परित्याग करके पूर्ण पूंजीवाद की ओर कदम बढ़ा दिया था। 1980 से ही श्रम न्यायालयों ने श्रमिकों के विरुद्ध और मालिकों के पक्ष में फैसले सुनाना प्रारम्भ कर दिया था। 1984  में अमेरिकी साजिश के तहत इन्दिरा जी की हत्या करा दी गई जिससे राजीव गांधी सहानुभूति के रथ पर सवार होकर तीन चौथाई बहुमत से संसद में पहुंचे और निर्बाध रूप से उदारीकरण के नाम पर निजीकरण चालू कर दिया। 1989 में बाबरी मस्जिद/ राम जन्म भूमि का ताला खुलवा कर सांप्रदायिक/साम्राज्यवादी शक्तियों को मजबूत कर दिया जिससे आर्थिक/राजनीतिक क्षेत्र में हो रहे प्रतिगामी परिवर्तनों से देशवासियों का ध्यान हटाया जा सके। 
1991 में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने उनकी भी हत्या करवा दी और इस सहानुभूति लहर में इंका के नरसिंघा राव जी (पूर्व RSS कार्यकर्ता) पी एम बने और पूर्व वर्ल्ड बैंक कर्मी मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री। सरकारी उद्योग अब खुल कर निजी क्षेत्र को दिये गए और इस कार्य को तीव्र गति प्रदान की संघी पी एम बाजपेयी जी ने जिसे अब मनमोहन जी निर्बाध रूप से पूरा कर रहे हैं। 

इन नीतियों से जनता का शोषण-उत्पीड़न इतना बढ़ा कि किसानों-मजदूरों मे आत्म-हत्याओं तक का सिलसिला चल पड़ा। विपरीत परिस्थितियों में सोनिया जी के विदेश इलाज के दौरान हज़ारे आंदोलन खड़ा करके जनता का ध्यान बांटा गया और उसके फल स्वरूप भाजपा व आ आ पा को व्यापक लाभ हुआ। मोदी की सांप्रदायिक नर-संहार की छवि के कारण अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को आगे कर दिया जो मनमोहन जी के  पूर्ण आशीर्वाद से आगे बढ़ रहे हैं। कारपोरेट घरानों के बड़े पदाधिकारी इस पार्टी में शामिल होकर 2014 में सत्ता पर काबिज होने के लिए पूरे तौर पर तैयार हैं। अफसोस और दुख की बात है कि कुछ कम्युनिस्ट और वामपंथी भी निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर आ आ पा के भक्त बने हुये हैं।





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