Tuesday 11 November 2014

जनता और जन कवियों के बिना ही 'भव्य जन -क्रांति ' का आह्वान ! ---विजय राजबली माथुर

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#Avadhnama कार्यक्रम के संचालक शहर के सम्मानित संस्कृतिकर्मी आदियोग ने शाद की नज्म से इस कार्यक्रम की शुरुआत की.


वहीं श्री वर्मा ने ‘कविता: 16 मई के बाद’ नामक आयोजन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए बताया कि 16 मई 2014 को लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद जो फासीवादी निज़ाम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस देश में आया है और उसके बाद इस देश में जैसी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां बनी हैं, उसमें एक अहम सांस्कृतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत आन पड़ी है. ऐसे में ज़रूरी है कि कविता को राजनीतिक औज़ार बनाकर एक प्रतिपक्ष का निर्माण किया जाए.

कविताओं की शुरुआत करते हुए शहर के प्रतिष्ठित संपादक और कवि सुभाष राय ने अपनी एक लंबी कविता सुनाई. इसके बाद कवि अजय सिंह ने अपनी बहुचर्चित कविता ”राष्ट्रपति भवन में सुअर” का पाठ किया.

कवि चंद्रेश्वर ने अफ़वाहों के फैलने पर एक ज़रूरी कविता सुनाई. मंच पर मौजूद ब्रजेश नीरज, हरिओम, ईश मिश्र, किरन सिंह, नरेश सक्सेना, नवीन कुमार, प्रज्ञा पाण्डेय, पाणिनी आनंद, रंजीत वर्मा, राहुल देव, राजीव प्रकाश गर्ग ’साहिर’, संध्या सिंह, सैफ बाबर, शिवमंगल सिद्धान्तकर, तश्ना आलमी, उषा राय, अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी सशक्त कविताओं के माध्यम से अपना-अपना प्रतिरोध दर्ज करवाया. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की . 

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10-11-2014   :-

 
ये कलाकार साबित करता है कि बुद्धिजीवी होने का तमगा के लिए आपको अन्य सभी जगह शिक्षा की जरूरत हो सकती है मगर बिहार और पूर्वांचल का बच्चा बच्चा बुद्धिजीवी पैदा होता है, अशिक्षित मजदूर या फिर ट्रेन में मांगने वाला भिखाड़ी भी बौधिक रूप से कैसे समृद्ध होता है.

हमारा बिहारी लाल फतुहा का अनिल कुमार ट्रेन में गीत गा कर मांग कर जीवन यापन करता है और व्यंग्य की पराकाष्ठ का ये गीत खुद गढ़ता है, आँख से अँधा मगर आखं वाले के बौधिक ज्ञान पर भारी है इसका ज्ञान जो बिना पढ़े लिखे दुनिया समाज और राजनीति पर व्यंगात्मक गीत की ये लड़ी पिरो सकता है, आप इसे मांगने वाला कह सकते हैं मैं इसे अपने भिखाड़ी ठाकुर और बैद्यनाथ मिश्र यात्री जैसे लाल की कड़ी में एक मोती मानता हूँ,

पूरा गीत सुनिए शायद आप भी सहमत हों कि हमारे बिहार और पूर्वांचल में बौधिक खान के बीच कैसे कैसे और कहाँ कहाँ हीरा मिलता है !!!
जन कवि का वीडियो---

बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित किया गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय में "कविता को राजनीतिक औज़ार बनाकर एक प्रतिपक्ष का निर्माण  " करने  हेतु  कार्यक्रम होगा और हुआ भी। लेकिन भाकपा के साधारण सदस्यों तो क्या ज़िला काउंसिल सदस्यों तक को इस कार्यक्रम की पार्टी की ओर से कोई सूचना नहीं प्रसारित की गई थी। पूंजीवादी जर्मनी के रेडियो-'डायचेवेले' के पेंशनर  तथा वर्तमान साम्राज्यवाद के सरगना 'ओबामा' की तुलना नौ लाख वर्ष पूर्व साम्राज्यवाद के पुरोधा 'रावण' को परास्त करने वाले जन-नायक 'राम' के साथ करने वाले 'ईश मिश्रा' जैसे लोग भी काव्य पाठ करने वालों में शामिल थे। अपवाद स्वरूप एक-दो को छोड़ कर सभी काव्य पाठी  समृद्ध वर्ग से थे। 

कार्यक्रम सार्वजनिक स्थान पर नहीं था लेकिन जन-क्रांति का आह्वान किया जा रहा था । छोटे-छोटे बच्चों के दफ्ती की तलवारों पर सफ़ेद चमकीला कागज चिपका कर युद्ध का अभिनय करने जैसे ऐसे कार्यक्रम जनता को लामबंद कभी भी नहीं कर सकते हैं  बस केवल आभिजात्य वर्ग का क्षणिक मनोरंजन ही कर सकते हैं।  वामपंथ और साम्यवाद की जनता में एक विकृत छवी कौन बना रहा है? देखिये तो ज़रा :

फासीवादी सत्ता को मजबूती देने का पोंगा-पंडितवादी तरीका है यह न कि वामपंथी-साम्यवाद ---
"देश में बढ़ते पूंजीवाद, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, फासीवाद, आतंकवाद, बेरोजगारी और महंगाई का नया वामपंथी इलाज - किस ऑफ़ लव ! अपने लोगों का मिज़ाज और सांस्कृतिक जड़ें समझे बगैर चीन और रूस का मॉडल लागू करने का सपना पालने वाले छद्म वामपंथ का अंततः यही हश्र होना था। देश में कभी भी कायदे का राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक प्रतिरोध खड़ा न कर सकने वाले इन हवा हवाई वामपंथी बुद्धीजीवियों ने पहले कविता और दूसरी कला विधाओं को लोहा, इस्पात और हथियार बनाने की जिद में कविता और कलाओं को मार डाला। अब ये प्रेम जैसी नितांत वैयक्तिक, निजी और कोमल भावना को सरेबाज़ार नीलाम करने की कोशिश में लगे हैं। उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर मलमूत्र त्याग और प्रेम जैसी आंतरिक अनुभूति का सार्वजनिक प्रदर्शन बिल्कुल एक जैसा कृत्य लगता है। माना कि प्रेम के प्रति फासीवादी संघी और खाप विचारधारा के विरोध की सख्त ज़रुरत है, मगर यह विरोध अपनी सांस्कृतिक जड़ों को काटकर नहीं किया जा सकता। अगर इन वामपंथी युवाओं को चुंबन का घृणास्पद सार्वजनिक तमाशा जायज़ लगता है तो ये लोग अपनी बीवियों, बहनों, बेटियों को लेकर सड़को पर क्यों नहीं उतरते ? आखिर उन्हें भी तो 'मुक्ति' के मार्ग पर चल निकलने की छूट मिलनी चाहिए ! ज़ाहिर है, ये लोग विरोध के नाम पर सड़कों पर मौज-मजे की तलाश में निकले हुए यौन-विकृत लोग है।
वामपंथियों ने देश में अपनी कब्र तो कबकी खोद ली थी, अब इनका दफ़न होना भर बाकी है !"


यह सब और कुछ नहीं केवल और केवल 'एथीस्टवादी संप्रदाय'का फासीवाद को पुख्ता करने का खेल है। 

जब तक भारतीय संदर्भों व प्रतीकों द्वारा जनता को साम्यवाद के बारे में नहीं समझाया जाएगा वह अपने शोषकों के जाल में फँसती रहेगी। ईश मिश्रा व डायचेवेले के पेंशनर तथा प्रदीप तिवारी सरीखे लोग जनता को साम्यवाद से सदैव दूर ही रखेंगे तो फिर जनता के सहयोग के बगैर जन-क्रान्ति कैसे होगी। सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक युवा साम्यवादी बेवजह फासीवादियों के सफाये का शिकार होते रहेंगे। 

 

जंन - तान्त्रिक पद्धति से तभी  संसद व सत्ता पर साम्यवादी विचार धारा बहुमत हासिल कर सकती है जबकि साम्यवाद  व वामपंथ को 'एथीस्टवादी संप्रदाय'के चंगुल से मुक्त कराकर जनोन्मुखी बना लिया जाये। 

  ~विजय राजबली माथुर ©
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