Saturday 24 January 2015

लखनऊ में ओबामा विरोधी सफल प्रदर्शन --- विजय राजबली माथुर




लखनऊ, 24 जनवरी 2015 : आज  निर्धारित समय से भाकपा कार्यालय -22, क़ैसर बाग  से एक जुलूस के रूप में पार्टी सदस्यों ने चल कर परिवर्तन चौक पर अन्य वामपंथी दलों के साथ संयुक्त होकर  विरोध प्रदर्शन में भाग लिया। मार्ग में गगनभेदी नारे लगाता हुआ प्रदर्शन गंतव्य गांधी प्रतिमा, जी पी ओ पार्क, लखनऊ पहुंचा जहां वह एक सभा में परिवर्तित हो गया। सभा की अध्यक्षता भाकपा, लखनऊ के जिलामंत्री कामरेड मोहम्मद ख़ालिक़ ने की जो बाईं आँख में चोट लगी होने बावजूद सोत्साह प्रदर्शन में शामिल रहे। भाकपा ,उ . प्र. के वरिष्ठ नेता कामरेड रामप्रताप त्रिपाठी की उपस्थिती इसलिए विशेष उल्लेखनीय है कि उन्होने हार्ट समस्या से ग्रस्त होने के बावजूद कार्यकर्ताओं का उत्साहवर्द्धन करने व अपना आशीर्वाद प्रदान करने हेतु आने का कष्ट किया।  भाकपा के  अन्य सदस्यों में सर्व कामरेड आशा मिश्रा, कल्पना पांडे'दीपा', राकेश, मास्टर सत्य नारायण, मोहम्मद अकरम, पी एन दिवेदी, विजय माथुर आदि भी उपस्थित थे। 

भाकपा की ओर से राकेश जी व आशा मिश्रा जी ने सभा को संबोधित किया एवं ख़ालिक़ साहब ने अध्यक्षीय भाषण दिया। अन्य वामपंथी दलों की भागीदारी व उनके नेताओं के भी भाषण हुये। सभी वक्ताओं ने एक स्वर से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को गणतन्त्र दिवस पर बुलाये जाने की कटु निंदा एवं नरेंद्र मोदी की घोर भर्तस्ना   की व आगे भी इसका विरोध जारी रखने की घोषणा की। 

प्रदर्शन के दौरान मार्ग में व सभा के बीच में भी कार्यकर्ताओं द्वारा जोशीले नारे लगाए जाते रहे :
बराक ओबामा वापस जाओ,
BARAK OBAMA GO BACK,
नरेंद्र मोदी हाय-हाय ,
नरेंद्र मोदी होश में आओ,
एफ डी आई नहीं चलेगी ,
नरेंद्र मोदी गद्दी छोड़ो, आदि-आदि  

Thursday 22 January 2015

वामपंथी दिवालिये बुद्धिजीवी आज केजरीवाल से बहुत सारी उम्‍मीदें पाल बैठे हैं, उनकी तब क्‍या हालत होगी!---Kavita Krishnapallavi


किरन बेदी के बाद अब उ.प्र. के पूर्व डी.जी.पी. बृजलाल भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
भाजपा के भीतर जो भी प्रमुख नेता होते हैं वे अधिकांशत: संघ की पृष्‍ठभूमि से आते हैं। दूसरे क्रम में प्र‍ाथमिकता दी जाती है सेना, पुलिस और नागरिक सेवा के अवकाश प्राप्‍त नौकरशाहों को। दरअसल भारत की समूची नौकरशाही का साँचा-खाँचा कामोबेश वैसा ही है जो 1947 के पहले था। नौकरशाही राज्‍यसत्‍ता की रीढ़ होती है। पूरी जिन्‍दगी नौकरशाही में गुजारने वाले लोगों का दिलो दिमाग सबकुछ डण्‍डे के जोर से चलाने के लिए अनुकूलित हो जाता है। ये लोग जनता को भेड़ समझते हैं, प्रकृति से निरंकुश स्‍वेच्‍छाचारी होते हैं और बुर्जुआ जनवाद को भी एक मज़बूरी और पाखण्‍ड से अधिक कुछ नहीं समझते। इसीलिए ऐसे लोगों को भाजपा का फासिस्‍ट चाल-चेहरा-चरित्र अधिक सुहाता है।
जनता को भेड़ समझने वाले और सभी समस्‍याओं को सख्‍त प्रशासन के नुस्‍खे से हल करने के हिमायती जिस खुशहाल मध्‍य वर्ग को भाजपा की नीतियाँ खूब भाती हैं, उसीको आप पार्टी भी सुहाती है। दरअसल इन दोनों पार्टियों का मुख्‍य सामाजिक समर्थन आधार समान है। राष्‍ट्रीय राजनीति में मोदी की नीतियों और केजरीवाल की नीतियों में कोई मूलभूत अन्‍तर नहीं है। दिल्ली विधान सभा चुनावों में यही दो पार्टियाँ मुख्‍य प्रतिस्‍पर्द्धी हैं। दोनों के पास समान लोकरंजक नारे हैं। इसीलिए चुनाव सिर्फ छवियों और प्रचार के हथकण्‍डों के सहारे लड़े जा रहे हैं। कांग्रेस की समस्‍या यह है कि उसी की आर्थिक नीतियों को भाजपा ज्‍यादा धक्‍कड़शाही और अंधेरगर्दी के साथ लागू कर रही है और पूँजीपतियों का पुरजोर समर्थन भी भाजपा के साथ है। कांग्रेस के पास न कोई लोकरंजक नारा है न किसी नायक का चमकता चेहरा। इसलिए उसकी मजबूरी है कि वह अगले वर्षों तक इन्‍तजार करे।
नवउदारवादी नीतियों पर सभी पार्टियों की आम सहमति है। अब इन नीतियों को आगे बढ़ानें के लिए और इन नीतियों के भीषण नतीजों को भुगतने वाली जनता के प्रतिरोधों को कुचलने के लिए एक निरंकुश दमनकारी सत्‍ता की जरूरत है और इसके लिए अपनी प्रकृति से भाजपा अन्‍य बुर्जुआ दलो के मुकाबले अधिक उपयुक्‍त है, इसीलिए शासक वर्गों का हाथ आज भाजपा की पीठ पर है। लेकिन अलग-अलग राज्‍यों में स्थितियाँ ऐसी हैं कि कई जगह भाजपा का सत्‍ता में आना सम्‍भव नहीं है। लेकिन इन राज्‍यों में चाहे जिस बुर्जुआ पार्टी या गठबंधन की सरकार बने, बुनियादी आर्थिक नीतियों के प्रश्‍न पर वह केन्‍द्र की सत्‍ता के कदम से कदम मिलाकर ही चलेगी।
केजरीवाल बुनियादी आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल नहीं उठाते। बिजली, पानी और भ्रष्‍टाचार के सवाल पर सस्‍ते लोकलुभावन नारों से अधिक उनके पास कहने को कुछ भी नहीं है। ठेका प्रथा समाप्‍त करने के वायदे पर पिछली बार दिल्ली मजदूरों ने उन्‍हें घेर लिया था और बहस में निरुत्‍तर होने के बाद उनके श्रम मंत्री को सिर पर पाँव रखकर भागना पड़ा था। इसबार केजरीवाल सावधान हैं। मज़दूरों के किसी भी मुद्दे को वे नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ मध्‍यवर्ग, व्‍यापारी वर्ग और ग्रामीण दिल्ली के भूसम्‍पत्ति मालिकों को लुभाना चाहते हैं।
दिल्ली में सत्‍ता चाहे भाजपा को मिले या आप पार्टी को, भारत के शासक वर्गों के लिए दोनों ही स्थितियाँ समान रूप से अनुकूल होंगी।

हम पहले से ही कहते आये हैं कि आप पार्टी आने वाले दिनों में या तो निष्‍प्राण-निष्‍प्रभावी हो जायेगी और उसका सामाजिक समर्थन आधार भाजपा से जुड़ जायेगा, या फिर यह स्‍वयं एक घोर दक्षिणपंथी चरित्र वाली पार्टी के रूप में बुर्जुआ संसदीय राजनीति में व्‍यवस्थित हो जायेगी। यह देखना दिलचस्‍प होगा कि जो कथित वामपंथी दिवालिये बुद्धिजीवी आज केजरीवाल से बहुत सारी उम्‍मीदें पाल बैठे हैं, उनकी तब क्‍या हालत होगी!

Tuesday 20 January 2015

प्रेरणास्त्रोत वर्द्धन जी का नागरिक अभिनंदन

 कामरेड अर्धेंदुभूषण वर्द्धन जी :
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव वरिष्ठ कामरेड  अर्धेंदुभूषण वर्द्धन जी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। 18 जनवरी 2015 को नागपुर में उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया और उनके दीर्घायुष्य की कामना की गई कि उनसे आगे भी मार्ग-दर्शन प्राप्त होता रहेगा जिस प्रकार वह पिछले 75 वर्षों  से मात्र 15 वर्ष की आयु से ही मजदूरों व आम जनता के संघर्षों में करते आए हैं। वर्द्धन जी नागपुर से 'विधायक' भी रह चुके हैं तब उनके साथ पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील जी भी महाराष्ट्र विधान सभा की सदस्या थीं। नागपुर वर्द्धन जी की 'कर्म-भूमि' रहा है और वहाँ के लोगों में वह आज भी लोकप्रिय हैं। 

वर्द्धन जी की यह लोकप्रियता उनके सौम्य व्यवहार का प्रतिफल है। 25-26 वर्ष पूर्व जब मैं आगरा में मात्र ज़िला काउंसिल सदस्य था और डॉ राम गोपाल सिंह चौहान, डॉ महेश चंद्र शर्मा व रमेश मिश्रा जी के आव्हान पर  सुंदर होटल, राजा-की मंडी स्थित  ज़िला कार्यालय पर उनको सहयोग करने हेतु जाया करता था तब एक रोज़ अचानक वर्द्धन जी का वहाँ आगमन हुआ था और उस समय मैं ही उपस्थित था और कार्य व्यस्त होने के कारण वर्द्धन जी को प्रवेश करते देख नहीं सका था एक बड़े राष्ट्रीय नेता होने के बावजूद वर्द्धन जी ने मुझे 'प्रणाम' कह कर संबोधित किया तब मैंने खड़े हो कर उनको अभिवादन किया और बैठने का निवेदन किया। वर्द्धन जी ने एक अखबार पढ़ने को ले लिया और मुझसे कार्य करते रहने को कहा।आने पर  कामरेड रमेश मिश्रा जी अचानक वर्द्धन जी को देख कर बेहद खुश हुये । उसी समय से मैं वर्द्धन जी की महानता का कायल हूँ। मैं उनके सुंदर,स्वस्थ,सुखद,समृद्ध उज्ज्वल भविष्य एवं दीर्घायुष्य की मंगल कामना करते हुये पार्टी पर उनका वरद हस्त बने रहने की इच्छा रखता हूँ। 
----- विजय राजबली माथुर 







विवरण साभार:
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Monday 19 January 2015

समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म पूर्णता: भारतीय अवधारणा है ----- विजय राजबली माथुर




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वर्तमान में उत्तर प्रदेश में संगठन को कुछ लोगों के निजी हितों के अनुकूल चलाया जा रहा है जिसका परिणाम गैर कम्युनिस्ट विचार धारा के लोगों को पार्टी प्रत्याशी बना दिया जाता है जो मतलब न सधने पर दूसरे ठिकाने पर पहुँच जाते हैं लेकिन जनता के बीच पार्टी की स्थिति हास्यास्पद बन जाती है।

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साम्यवाद अथवा वामपंथ के पुरोधा यह मानने को तैयार नहीं हैं कि यह मूलतः भारतीय अवधारणा है और वे विदेशी नक्शे-कदम चल कर इसे भारत में लागू करने की घोषणा तो करते हैं किन्तु खुद ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं करते जिंनका उल्लेख अपने प्रवचनों में करते हैं। इसी वजह से जनता को प्रभावित करने में असमर्थ हैं और जिस दिन जाग जाएँगे और सही दिशा में चलने लगेंगे जनता छ्ल-छ्द्यम वालों को रसातल में पहुंचा कर उनके पीछे चलने लगेगी। लेकिन सबसे पहले साम्यवाद व वामपंथ के ध्वजावाहकों को अपनी सोच को 'सम्यक' बनाना होगा।


'एकला चलो रे' की तर्ज़ पर मैं अपना फर्ज़ निबहता रहता हूँ और मैंने आज की परिस्थितियों का आंकलन इसी ब्लाग पर पहले ही  दिया था जिसे हू-ब-हू पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ:
Sunday, September 18, 2011
बामपंथी कैसे सांप्रदायिकता का संहार करेंगे?
आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है,बामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे?
भारत मे इस्लाम एक शासक के धर्म के रूप मे आया जबकि भारतीय धर्म आत्मसात करने की क्षमता त्याग कर संकीर्ण घोंघावादी हो चुका था। अतः इस्लाम और अनेक मत-मतांतरों मे विभक्त और अपने प्राचीन गौरव से भटके हुये यहाँ प्रचलित धर्म मे मेल-मिलाप न हो सका। शासकों ने भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए इस्लाम का ठीक वैसे ही प्रचार किया जिस प्रकार अमीन सायानी सेरोडान की टिकिया का प्रचार करते रहे हैं। जनता के भोलेपन का लाभ उठाते हुये भारत मे इस्लाम के शासकीय प्रचारकों ने कहानियाँ फैलाईं कि,हमारे पैगंबर मोहम्मद साहब इतने शक्तिशाली थे कि,उन्होने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। तत्कालीन धर्म और  समाज मे तिरस्कृत और उपेक्षित क्षुद्र व पिछड़े वर्ग के लोग धड़ाधड़ इस्लाम ग्रहण करते गए और सवर्णों के प्रति राजकीय संरक्षण मे बदले की कारवाइया करने लगे। अब यहाँ प्रचलित कुधर्म मे भी हरीश भीमानी जैसे तत्कालीन प्रचारकों ने कहानियाँ गढ़नी शुरू कीं और कहा गया कि,मोहम्मद साहब ने चाँद  के दो टुकड़े करके क्या कमाल किया?देखो तो हमारे हनुमान लला पाँच वर्ष की उम्र मे सम्पूर्ण सूर्य को रसगुल्ला समझ कर निगल गए थे---
"बाल समय रवि भक्षि लियौ तब तींन्हू लोक भयो अंधियारों।
............................ तब छाणि दियो रवि कष्ट निवारों। "
(सेरीडान  की तर्ज पर डाबर की सरबाइना जैसा सायानी को हरीश  भीमानी जैसा जवाब था यह कथन)
इस्लामी प्रचारकों ने एक और अफवाह फैलाई कि,मोहम्मद साहब ने आधी रोटी मे छह भूखों का पेट भर दिया था। जवाबी अफवाह मे यहाँ के धर्म के ठेकेदारों ने कहा तो क्या हुआ?हमारे श्री कृष्ण ने डेढ़ चावल मे दुर्वासा ऋषि और उनके साठ हजार शिष्यों को तृप्त कर दिया था। 'तर्क' कहीं नहीं था कुतर्क के जवाब मे कुतर्क चल रहे थे।
अभिप्राय यह कि,शासक और शासित के अंतर्विरोधों से ग्रसित इस्लाम और यहाँ के धर्म को जिसे इस्लाम वालों ने 'हिन्दू' धर्म नाम दिया के परस्पर उखाड़-पछाड़ भारत -भू पर करते रहे और ब्रिटेन के व्यापारियों की गुलामी मे भारत-राष्ट्र को सहजता से जकड़ जाने दिया। यूरोपीय व्यापारियों की गुलामी मे भारत के इस्लाम और हिन्दू दोनों के अनुयायी समान रूप से ही उत्पीड़ित हुये बल्कि मुसलमानों से राजसत्ता छीनने के कारण शुरू मे अंग्रेजों ने मुसलमानों को ही ज्यादा कुचला और कंगाल बना दिया।
ब्रिटिश दासता
साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारत की धरती और जन-शक्ति का भरपूर शोषण और उत्पीड़न किया। भारत के कुटीर उदद्योग -धंधे को चौपट कर यहाँ का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और तैयार माल लाकर भारत मे खपाया  जाने लगा। ढाका की मलमल का स्थान लंकाशायर और मेंनचेस्टर की मिलों ने ले लिया और बंगाल (अब बांग्ला देश)के मुसलमान कारीगर बेकार हो गए। इसी प्रकार दक्षिण भारत का वस्त्र उदद्योग तहस-नहस हो गया।
आरकाट जिले के कलेक्टर ने लार्ड विलियम बेंटिक को लिखा था-"विश्व के आर्थिक इतिहास मे ऐसी गरीबी मुश्किल से ढूँढे मिलेगी,बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। "
सन सत्तावन की क्रान्ति
लगभग सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी ने भारत के इस्लाम और हिन्दू धर्म के अनुयायीओ को एक कर दिया और आजादी के लिए बाबर के वंशज बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे हरा झण्डा लेकर समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। परंतु दुर्भाग्य से भोपाल की बेगम ,ग्वालियर के सिंधिया,नेपाल के राणा और पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति को कुचलने मे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों द्वारा अवध की बेगमों पर निर्मम अत्याचार किए गए जिनकी गूंज हाउस आफ लार्ड्स मे भी हुयी। बहादुर शाह जफर कैद कर लिया गया और मांडले मे उसका निर्वासित के रूप मे निधन हुआ। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वीर गति को प्राप्त हुयी। सिंधिया को अंग्रेजों से इनाम मिला। असंख्य भारतीयों की कुर्बानी बेकार गई।
वर्तमान सांप्रदायिकता का उदय
सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित  रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस राष्ट्र वादियों  के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग-भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं,मुसलमानों,हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल,पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।

बामपंथ का आगमन
1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'की स्थापना करके पूर्ण स्व-राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया। कम्यूनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो कम्यूनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों के साथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
वर्तमान  सांप्रदायिकता
1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया-भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे काश्मीर मे प्रति-सांप्रदायिकता उभरी कि,काश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।
पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो काश्मीर को अलग करने के लिए धारा 370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए। माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि/बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।
बामपंथी कोशिश
भारतीय कम्यूनिस्ट,मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट,क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लाक के 'बामपंथी मोर्चा'ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान चलाया । बुद्धिजीवी और विवेकशील  राष्ट्र वादी  सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर हैं,परंतु ये सब संख्या की दृष्टि से अल्पमत मे हैं,साधनों की दृष्टि से विप्पन  हैं और प्रचार की दृष्टि से बहौत पिछड़े हुये हैं। पूंजीवादी प्रेस बामपंथी सौहार्द के अभियान को वरीयता दे भी कैसे सकता है?उसका ध्येय तो व्यापारिक हितों की पूर्ती के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को सबल बनाना है। अपने आदर्शों और सिद्धांतों के बावजूद बामपंथी अभियान अभी तक बहुमत का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है जबकि,सांप्रदायिक शक्तियाँ ,धन और साधनों की संपन्नता के कारण अलगाव वादी प्रवृतियों को फैलाने मे सफल रही हैं।
सड़कों पर दंगे
अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है,देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित-साधन कर रही है। जमाखोरों,सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक बामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। बामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण बामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।
दक्षिण पंथी तानाशाही का भय
वर्तमान (1991 ) सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ताज़ी घटना है।
पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी-रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।
बामपंथी असमर्थ
वर्तमान परिस्थितियों का मुक़ाबला करने मे सम्पूर्ण बामपंथ पूरी तरह असमर्थ है। धन-शक्ति और जन-शक्ति दोनों ही का उसके पास आभाव है। यदि अविलंब सघन प्रचार और संपर्क के माध्यम से बामपंथ जन-शक्ति को अपने पीछे न खड़ा कर सका तो दिल्ली की सड़कों पर होने वाले निर्णायक युद्ध मे संघ से हार जाएगा जो देश और जनता के लिए दुखद होगा।

परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।

परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।

http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_18.html


लगभग 12 (अब  32)  वर्ष पूर्व सहारनपुर के 'नया जमाना'के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1952 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्यूनिस्टों और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई  दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।

भारत विविधता मे एकता वाला एक अनुपम राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं,पोशाकों,आचार-व्यवहार आदि के उपरांत भी भारत अनादी  काल से एक ऐसा राष्ट्र रहा है जहां आने के बाद अनेक आक्रांता यहीं के होकर रह गए और भारत ने उन्हें आत्मसात कर लिया। यहाँ का प्राचीन आर्ष धर्म हमें "अहिंसा परमों धर्मा : "और "वसुधेव कुटुम्बकम" का पाठ पढ़ाता रहा है। नौवीं सदी के आते-आते भारत के व्यापक और सहिष्णू स्वरूप को आघात लग चुका था। यह वह समय था जब इस देश की धरती पर बनियों और ब्राह्मणों के दंगे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने धर्म को संकुचित कर घोंघावादी बना दिया था । सिंधु-प्रदेश के ब्राह्मण आजीविका निर्वहन के लिए समुद्री डाकुओं के रूप मे बनियों के जहाजों को लूटते थे। ऐसे मे धोखे से अरब व्यापारियों को लूट लेने के कारण सिंधु प्रदेश पर गजनी के शासक महमूद गजनवी ने बदले की  लूट के उद्देश्य से अनेकों आक्रमण किए और सोमनाथ को सत्रह बार लूटा। महमूद अपने व्यापारियों की लूट का बदला जम कर लेना चाहता था और भारत मे उस समय बैंकों के आभाव मे मंदिरों मे जवाहरात के रूप मे धन जमा किया जाता था। प्रो नूरुल हसन ने महमूद को कोरा लुटेरा बताते हुये लिखा है कि,"महमूद वाज ए डेविल इन कार्नेट फार दी इंडियन प्यूपिल बट एन एंजिल फार हिज गजनी सबजेक्ट्स"। महमूद गजनवी न तो इस्लाम का प्रचारक था और न ही भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहता था ,उसने ब्राह्मण लुटेरों से बदला लेने के लिए सीमावर्ती क्षेत्र मे व्यापक लूट-पाट की । परंतु जब अपनी फूट परस्ती के चलते यहीं के शासकों ने गोर के शासक मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया तो वह यहीं जम गया और उसी के साथ भारत मे इस्लाम का आगमन हुआ।
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मेरा आज भी सुदृढ़ अभिमत है कि यदि कम्युनिस्ट -वामपंथी जनता को 'धर्म' का मर्म समझाएँ और बताएं कि जिसे धर्म कहा जा रहा है वह तो वास्तव में अधर्म है,ढोंग,पाखंड,आडंबर है जिसका उद्देश्य साधारण जनता का शोषण व उत्पीड़न करना है तो कोई कारण नहीं है कि जनता वस्तु-स्थिति को न समझे।लेकिन जब ब्राह्मणवादी-पोंगापंथी जकड़न से खुद कम्युनिस्ट-वामपंथी निकलें तभी तो जनता को समझा सकते हैं? वरना धर्म का विरोध करके व एथीस्ट होने का स्वांग करके उसी पाखंड-आडम्बर-ढोंगवाद को अपनाते रह   कर तो जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं किया जा सकता है।
परमात्मा  या प्रकृति के लिए सभी प्राणी व मनुष्य समान हैं और उसकी ओर से  सभी को जीवन धारण हेतु समान रूप से वनस्पतियाँ,औषद्धियाँ,अन्न,खनिज आदि-आदि बिना किसी भेद-भाव के  निशुल्क उपलब्ध हैं। अतः इस जगत में एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण करना परमात्मा व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और इसी बात को उठाने वाले दृष्टिकोण को समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म कहा जाता है और यह पूर्णता: भारतीय अवधारणा है। आधुनिक युग में जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने इस दृष्टिकोण को पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पुनः प्रस्तुत किया है। 'कृणवन्तो विश्वमार्यम' का अभिप्राय है कि समस्त विश्व को आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना है और यह तभी हो सकता है जब प्रकृति के नियमानुसार आचरण हो। कम्युनिस्ट प्रकृति के इस आदि नियम को लागू करके समाज में व्याप्त मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने हेतु 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज का अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। इस आर्ष व्यवस्था का विरोध शासक,व्यापारी और पुजारी वर्ग मिल कर करते हैं वे अल्पमत में होते हुये भी इसलिए कामयाब हैं कि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग परस्परिक फूट में उलझ कर शोषकों की चालों को समझ नहीं पाता है। उसे समझाये कौन? कम्युनिस्ट तो खुद को 'एथीस्ट' और धर्म-विरोधी सिद्ध करने में लगे रहते हैं। 

काश सभी बिखरी हुई कम्युनिस्ट शक्तियाँ  दीवार पर लिखे को पढ़ें और  यथार्थ को समझें और जनता को समझाएँ तो अभी भी शोषक-उत्पीड़क-सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त किया जा सकता है। लेकिन जब धर्म को मानेंगे नहीं अर्थात 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन नहीं करेंगे 'एथीस्ट वाद' की जय बोलते हुये ढोंग-पाखंड-आडंबर को प्रोत्साहित करते रहेंगे अपने उच्च सवर्णवाद के कारण तब तो कम्यूनिज़्म को पाकर भी रूस की तरह खो देंगे या चीन की तरह स्टेट-कम्यूनिज़्म में बदल डालेंगे।
http://krantiswar.blogspot.in/2014/05/blog-post_22.html 

Friday 9 January 2015

सेकुलर : एजेंडा आतंरिक गुटबंदी और राजनीति --- सत्यमित्र दुबे


विवाद सांस्कृतिक -साहित्यिक, सेकुलर : एजेंडा आतंरिक गुटबंदी और राजनीति:-----
अपने को वामपंथ, प्रगतिशीलता और सेकुलरिज्म के पैरवीकार घोषित करने वालों द्वारा गत दो वर्षों में फेसबुक की सुविधा का उपयोग करते हुए कन्हाकांड, रायपुर महोत्सव में भागीदारी ,अज्ञेय की जन्म शताब्दी , कमलेश शुक्ल के लेखन , रमेशचन्द्र शाह को साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कार दिए जाने और मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न से अलंकृत करने पर ऊपरी तौर पर जो मुद्दे उठा ये जाते रहे हैं , उससे यह भाषित होता रहा कि ये मुद्दे साहित्य, संस्कृति, सेकुलरिज्म की शुचिता से जुड़े हैं लेकिन अंत में इसके पीछे के राजनीतिक एजेंडा के कारण हर बार यह प्रायोजित बहस इनकी आपस की भद्दी आतंरिक गुटबंदी और अशालीन आरोप- प्रत्यारोप में बदलती रही है ।
दुनिया में तानाशाही पर आधारित साम्यवादी राज व्यवस्था के भू लुंठित हो जाने , २१ वीं सदी में १९वीं सदी के प्रथम अर्ध काल के अनुभवों के आधार पर लिखे मार्क्स के विश्लेषण को काल - बाधित हो जाने के कारण आज पूरी दुनिया के साम्यवादी विम्रम और विचारहीनता से ग्रस्त हैं. भारतीय साम्यवादियों की राजनीतिक और वैचारिक स्थिति तो और भी दयनीय है।
बिभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साम्यवादी मित्र बिभ्रम,विचारहीनता की मानसिकता में स्टालिन-ट्राटस्की से जुड़े सत्ता-संघर्ष के बीच से उपजे साहित्यिक यथार्थवाद के नाम पर हुए पर- पीड़न और माओ की अमानवीय सांस्कृतिक क्रांति की भोड़ी नक़ल अपनी हाशिये पर स्थित ताकत के बदौलत घुमा फ़िरा कर करने की कोशिश करते रहते हैं.
भारतीय समाज, संस्कृति की अविवेकी समझ और व्याख्या और विश्व साम्यवाद की भद्दी, अंधी नक़ल के चलते हमारे साम्यवादी मित्र इस बात से भी कुछ सीखने के लिए तैयार नहीं हैं की रूस की जनता ने स्टालिन के शव को कब्र से निकाल बाहर किया और , चीन में साम्यवादी सरकार ने माओ की सांस्कृतिक क्रांति के चार पुरोधाओं को ( माओ की पत्नी सहित ) मृत्यु दंड दिया। आज चीन में माओ तिरस्कृत से हैं।

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 अब से नौ लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर प्रथम साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष हुआ था जिसमें साम्राज्यवादी परास्त हुये थे। किन्तु पाश्चात्य प्रभुत्व के कारण हमारे साम्यवादी विद्वान हकीकत को नकार देते हैं जिसका प्रतिफल यह है कि आज के साम्राज्यवादी उन्हीं राम का नाम लेकर जनता का दमन व शोषण कर रहे हैं जिनहोने सर्व-प्रथम साम्राज्यवाद को इस धरती पर परास्त किया था।
इसी प्रकार अब से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व श्री कृष्ण ने समानता पर आधारित गण राज्य की स्थापना करके आदर्श प्रस्तुत किया था किन्तु प्रगतिशीलता व एथीज़्म के नाम पर इस तथ्य से आँखें फेर ली जाती हैं और बजाए कृष्ण का सहारा लेने के उनकी निंदा व आलोचना की जाती है जिसका लाभ पुनः सांप्रदायिक व साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियाँ उठा लेती हैं। 
नानक,कबीर, रेदास,दयानन्द, विवेकानंद आदि के दृष्टिकोण साम्यवाद के निकट हैं किन्तु साम्यवादी विद्वान उसी एथीज़्म के वशीभूत होकर इनका सहारा लेने की जगह उनकी आलोचना करते हैं। 
http://communistvijai.blogspot.in/2014/11/blog-post_1.html 

अपने ब्लाग्स -'क्रांतिस्वर'तथा 'साम्यवाद (COMMUNISM)' के माध्यम से मैं भारत में साम्यवाद को सफल कैसे बनाया जाये इस संबंध में लिखता आ रहा हूँ किन्तु मेरा अस्तित्व नगण्य होने के कारण उन पर ध्यान देने की बजाए उनका तीव्र विरोध संकीर्ण प्रवृति के लोग करते रहते हैं। अतः  प्रो . सत्यमित्र जी के कथन को ही आधार मान कर व्यावहारिक परिवर्तन कर लिए जाएँ तो जन-समर्थन हासिल किया जा सकता है। 
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Saturday, 1 November 2014


साम्यवाद भारत में ऐसे लोगों के कारण ही सफल नहीं हो पा रहा है ---विजय राजबली माथुर

 http://communistvijai.blogspot.in/2014/10/blog-post_31.html
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Wednesday 7 January 2015

The Coming Second Emergency: left people in the lurch --------- Markandey Katju

https://www.facebook.com/justicekatju/posts/898311490209398





The Coming Second Emergency
Even if this shocks some people, I can accurately predict that a second emergency, like that we witnessed during 1975-1977, is coming in India, may be in about one year's time, in which democracy, freedom of speech and of the press, and civil liberties will all be totally suppressed. Consider the facts logically :
1. This government came to power on high expectations with the slogan of ' vikaas ' or development. This meant, or at least was perceived as, millions of jobs for the youth, industrial growth benefiting businessmen and others, and general prosperity for the public.
2. We are now 7 months since the new government came to power, but one can see no traces of vikaas ( see my articles ' The Shape of Things to come ', ' Vikas ', 'Healthcare in India', ' Malnutrition in India ', 'Unemployment in India;, ' The Trickle Down Theory ', etc on facebook and my blog justicekatju.blogspot.in ), but only stunts like Swatchata Abhiyaan, Ghar wapasi, Good Governance day, etc. In these articles I have demonstrated that under the economic policies being pursued by this government there is bound to be further economic recession and further unemployment, malnutrition, farmers' suicides and poverty, though a handful of big businessmen may benefit.
3. Consequently this government will become increasingly unpopular day by day, as people, especially the youth, get disillusioned and realize that they were befooled and taken for a ride by our superman who promised a paradise and Shangri-La in India with his accession to power, but have left people in the lurch.
Presently no doubt the BJP is winning state elections, but that is because the Congress party has given a walk over by persisting in retaining a discredited Sonia and Rahul Gandhi as its leaders, not because the BJP has fulfilled its electoral promises.
4. This disillusionment and disenchantment, coupled with the terrible economic hardships and distress the Indian people are facing, with rising prices, rising unemployment, widespread malnutrition, farmers suicides, etc, is bound to lead to widespread popular agitations, disturbances, and turbulence all over the country
5. To deal with these, harsh measures will be employed by the Government, in other words, some kind of Emergency which we witnessed from 1975-1977, will be imposed in the country, in which all civil liberties, freedom of speech and of the press, and all vestiges of democracy will be suppressed

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Friday 2 January 2015

अदूरदर्शिता व राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचायक --- विजय राजबली माथुर


कामरेड अरविंद राज स्वरूप जी की  फेसबुक वाल पर उपरोक्त संदर्भित टैग देखा जिस पर किसी भी कामरेड की कोई प्रातक्रिया न देख कर मैंने अपना मूल्यांकन लिख दिया था।

  • Vijai RajBali Mathur भाकपा के इन पूर्व प्रत्याशियों का यह निर्णय उनकी अदूरदर्शिता व राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचायक प्रतीत होता है और यह भी आभास दिलाता है कि वे पार्टी में किसी प्रलोभनवश ही आए थे तथा उनका जन-सरोकारों से कोई वास्ता नहीं था। 
     उसके बाद कामरेड हक ने भी अपना रिमार्क लिखा है।

    • Nasirul Haque Yeh log kab se party men the aur istafa ka karan bhi likhana chahie

ज़िला सम्मेलन से पूर्व वरिष्ठ नेता गण  को इन दोनों की संदेहास्पद गतिविधिधियों की सूचना दी गई  थी। उन  दोनों को यह भी सूचित किया गया   था कि प्रो ए के सेठ साहब अगस्त में मेरे पास गिरीश जी के आदेश से आए थे और लगभग तीन घंटे अतुल अंजान साहब व एक -आधा घंटे गिरीश जी के विरुद्ध प्रवचन देते रहे थे जिस कारण मैंने अपने घर पर उनका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था। ज्ञात हुआ है कि उसके बाद सेठ साहब राजपाल व महेंद्र के घर कई बार गए और काफी चर्चाएं करते रहे। ये लोग मुझे सूचित कर गए थे कि मुझको ज़िला सम्मेलन में भाग लेने से वंचित किया जा रहा है और नई काउंसिल में नहीं रखा जाएगा।  उस बात को भी उन दोनों  को मेसेज के जरिये बता दिया गया  था। परंतु किसी का नाम काट कर मुझे सम्मेलन में शामिल कर लिया गया उनकी दूसरी बात सही रही। क्योंकि मुझे किसी पद पर रहने या उसके जरिये अरनिंग नहीं करनी है इसलिए मुझे कोई फर्क भी नहीं है। 13 दिसंबर के प्रदर्शन और 26 दिसंबर के स्थापना दिवस कार्यक्रम  में ख़ालिक़ साहब ने बुलाया और मैं दोनों में उपस्थित भी रहा। नव-वर्ष पर ख़ालिक़ साहब समेत कुल चार कामरेड्स  से बात भी हुई। पलायनकर्ताओं   ने  बताया था कि ख़ालिक़ साहब ने इन लोगों को आशीर्वाद भी दिया है जबकि ख़ालिक़ साहब ने बताया कि अगर पार्टी के खिलाफ बयान देंगे तो इनको निष्कासित किए जाने की घोषणा कर देंगे जो कि वाकई ठीक है।
2012  के विधानसभा चुनाव में ख़ालिक़ साहब ही महेंद्र को पार्टी में लाये और मलीहाबाद से चुनाव लड़वाया तभी  उनके चुनाव एजेंट अकरम ने कह दिया था कि अगली बार इनको टिकट नहीं दिया जाएगा। राजपाल को महेंद्र लाये थे जिनको ख़ालिक़ साहब ने 2014 के उपचुनाव में लखनऊ पूर्व से टिकट दिलवाया और परिणाम के दिन ही एनुद्दीन ने घोषणा कर दी कि अगली बार इनको टिकट नहीं दिया जाएगा। अकरम और एनुद्दीन दोनों ही ख़ालिक़ साहब के दायें-बाएँ हैं और ख़ालिक़ साहब खुद अशोक मिश्रा जी के शिष्य हैं। अशोक मिश्रा जी ने गिरीश जी से कहा था कि इन लोगों से सिर्फ काम लेना चाहिए और कमांड नहीं देनी चाहिए ,खुद गिरीश जी यादवों से नफरत करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में प्रतीत होता है कि प्रो सेठ के माध्यम से अशोक मिश्रा जी ने इन दोनों को पार्टी छोडने का पाठ पढ़वाया होगा जिस पर इन लोगों ने बगैर कुछ भी सोचे-समझे अमल कर दिया है।इस संदर्भ में अशोक मिश्रा जी के ज़िला सम्मेलन के उदघाटन पर दिये गए भाषण से भी समझा जा सकता है:

पूर्व घोषणा के अनुसार विगत 23 नवंबर 2014 को भाकपा, लखनऊ का 22 वां ज़िला सम्मेलन आयोजित हुआ। प्रारम्भ में प्रदेश की ओर से पर्यवेक्षक महोदय ने इसका उदघाटन उद्बोद्धन दिया। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय परिस्थितियों का सवा घंटे उल्लेख कर जब वह ज़िले की परिस्थितियों पर आए तो उनके असंतोष व आक्रोश का प्रस्फुटन हुआ।खुद बारह वर्ष लखनऊ के ज़िला सचिव व आठ वर्ष प्रदेश के सचिव रह चुके पर्यवेक्षक महोदय  जिलामंत्री जी से काफी खिन्न थे और उनकी सांगठानिक कार्य प्राणाली की तीखी भर्त्सना कर डाली। उनके द्वारा इंगित किया गया कि यह ज़िला सम्मेलन बगैर शाखाओं व मध्यवर्ती कमेटियों के सम्मेलन करवाए हो रहा है। उनके द्वारा यह भी उद्घाटित किया गया कि वह लखनऊ के ही हैं और यहीं रहने के कारण यहाँ की हर गतिविधि से बखूबी वाकिफ भी हैं। इस क्रम में उनके द्वारा साफ शब्दों में कहा गया कि वह मलीहाबाद और लखनऊ पूर्व से रहे प्रत्याशियों से काफी असंतुष्ट हैं क्योंकि उन दोनों ने संगठन के विस्तार पर कोई ध्यान ही नहीं दिया है। अपने गुस्से को और आगे बढ़ाते हुये कठोर शब्दों में इन दोनों को चेतावनी देते हुये उन्होने कहा कि जिस प्रकार प्रदेश के किसान सभा नेता और खेत मजदूर यूनियन नेता कम्युनिस्ट पार्टी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं वैसा ही ज़िले में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा भले ही ज़िले में ये संगठन बनें या न बनें। किन्तु उनके द्वारा महिला फेडरेशन के किए कार्यों का विशद गुण गान किया गया। उनके बाद बोलने आए इप्टा के राकेश जी व प्रलेस के शकील सिद्दीकी साहब उनके लंबे भाषण का ज़िक्र करना न भूले। अध्यक्ष मण्डल के सदस्य शिव प्रकाश तिवारी जी ने उनके विपरीत ज़िले से प्रत्याशी रहे दोनों युवा साथियों की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि वे सुप्तप्राय पार्टी का झण्डा-बैनर लेकर जनता के बीच गए और उन दोनों ने पार्टी को पुनर्जीवित कर दिया। शिव प्रकाश जी ने किसान नेताओं की भी प्रशंसा करते हुये विशेष रूप से अतुल अंजान साहब के योगदान को याद दिलाया। जिला मंत्री की कमियों के बावजूद उनके धैर्य व संयम की भी शिव प्रकाश जी ने सराहना की। - See more at: http://krantiswar.blogspot.in/2014/11/blog-post_26.html#sthash.ddfr17lJ.dpuf
 पूर्व घोषणा के अनुसार विगत 23 नवंबर 2014 को भाकपा, लखनऊ का 22 वां ज़िला सम्मेलन आयोजित हुआ। प्रारम्भ में प्रदेश की ओर से पर्यवेक्षक महोदय ने इसका उदघाटन उद्बोद्धन दिया। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय परिस्थितियों का सवा घंटे उल्लेख कर जब वह ज़िले की परिस्थितियों पर आए तो उनके असंतोष व आक्रोश का प्रस्फुटन हुआ।खुद बारह वर्ष लखनऊ के ज़िला सचिव व आठ वर्ष प्रदेश के सचिव रह चुके पर्यवेक्षक महोदय  जिलामंत्री जी से काफी खिन्न थे और उनकी सांगठानिक कार्य प्राणाली की तीखी भर्त्सना कर डाली। उनके द्वारा इंगित किया गया कि "यह ज़िला सम्मेलन बगैर शाखाओं व मध्यवर्ती कमेटियों के सम्मेलन करवाए हो रहा है। उनके द्वारा यह भी उद्घाटित किया गया कि वह लखनऊ के ही हैं और यहीं रहने के कारण यहाँ की हर गतिविधि से बखूबी वाकिफ भी हैं। इस क्रम में उनके द्वारा साफ शब्दों में कहा गया कि वह मलीहाबाद और लखनऊ पूर्व से रहे प्रत्याशियों से काफी असंतुष्ट हैं क्योंकि उन दोनों ने संगठन के विस्तार पर कोई ध्यान ही नहीं दिया है। अपने गुस्से को और आगे बढ़ाते हुये कठोर शब्दों में इन दोनों को चेतावनी देते हुये उन्होने कहा कि जिस प्रकार प्रदेश के किसान सभा नेता और खेत मजदूर यूनियन नेता कम्युनिस्ट पार्टी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं वैसा ही ज़िले में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा भले ही ज़िले में ये संगठन बनें या न बनें। "
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पूर्व घोषणा के अनुसार विगत 23 नवंबर 2014 को भाकपा, लखनऊ का 22 वां ज़िला सम्मेलन आयोजित हुआ। प्रारम्भ में प्रदेश की ओर से पर्यवेक्षक महोदय ने इसका उदघाटन उद्बोद्धन दिया। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय परिस्थितियों का सवा घंटे उल्लेख कर जब वह ज़िले की परिस्थितियों पर आए तो उनके असंतोष व आक्रोश का प्रस्फुटन हुआ।खुद बारह वर्ष लखनऊ के ज़िला सचिव व आठ वर्ष प्रदेश के सचिव रह चुके पर्यवेक्षक महोदय  जिलामंत्री जी से काफी खिन्न थे और उनकी सांगठानिक कार्य प्राणाली की तीखी भर्त्सना कर डाली। उनके द्वारा इंगित किया गया कि यह ज़िला सम्मेलन बगैर शाखाओं व मध्यवर्ती कमेटियों के सम्मेलन करवाए हो रहा है। उनके द्वारा यह भी उद्घाटित किया गया कि वह लखनऊ के ही हैं और यहीं रहने के कारण यहाँ की हर गतिविधि से बखूबी वाकिफ भी हैं। इस क्रम में उनके द्वारा साफ शब्दों में कहा गया कि वह मलीहाबाद और लखनऊ पूर्व से रहे प्रत्याशियों से काफी असंतुष्ट हैं क्योंकि उन दोनों ने संगठन के विस्तार पर कोई ध्यान ही नहीं दिया है। अपने गुस्से को और आगे बढ़ाते हुये कठोर शब्दों में इन दोनों को चेतावनी देते हुये उन्होने कहा कि जिस प्रकार प्रदेश के किसान सभा नेता और खेत मजदूर यूनियन नेता कम्युनिस्ट पार्टी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं वैसा ही ज़िले में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा भले ही ज़िले में ये संगठन बनें या न बनें। किन्तु उनके द्वारा महिला फेडरेशन के किए कार्यों का विशद गुण गान किया गया। उनके बाद बोलने आए इप्टा के राकेश जी व प्रलेस के शकील सिद्दीकी साहब उनके लंबे भाषण का ज़िक्र करना न भूले। अध्यक्ष मण्डल के सदस्य शिव प्रकाश तिवारी जी ने उनके विपरीत ज़िले से प्रत्याशी रहे दोनों युवा साथियों की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि वे सुप्तप्राय पार्टी का झण्डा-बैनर लेकर जनता के बीच गए और उन दोनों ने पार्टी को पुनर्जीवित कर दिया। शिव प्रकाश जी ने किसान नेताओं की भी प्रशंसा करते हुये विशेष रूप से अतुल अंजान साहब के योगदान को याद दिलाया। जिला मंत्री की कमियों के बावजूद उनके धैर्य व संयम की भी शिव प्रकाश जी ने सराहना की। - See more at: http://krantiswar.blogspot.in/2014/11/blog-post_26.html#sthash.ddfr17lJ.dpuf
 व्यक्तिगत रूप से अपने बारे में वे लोग जानें किन्तु उनके बनवाए 75-80 पार्टी सदस्य अब उनके साथ ही जाएंगे यह निश्चित जानिए। जो लोग पैसा भी खर्च कर रहे थे और जिनके पास समर्थक भी थे उनको पार्टी छोडने पर मजबूर करके अशोक मिश्रा जी व ए के सेठ साहब ने पार्टी का किस प्रकार भला किया? ज़रा इस पर भी विचार होना चाहिए ही ।