Wednesday 18 May 2016

जनवाद का सिमटना ही फासीवाद के आने की आहट ------ महेश राठी


Mahesh Rathi
12 May 2016  
जहां से जनवाद खत्म होता है वहीं से फासीवाद शुरू होता है। जनवाद का सिमटना ही फासीवाद के आने की आहट होता है। 
वर्तमान दौर में फासीवाद बुशवाद की शक्ल में जनवाद का चोला ओढ़कर हामरे सामने है। जार्ज बुश ने अफगानिस्तान पर हमला करते हुए क्रुसेड अर्थात धर्मयुद्ध का आहवान किया था तो कहा था कि या आप हमारे साथ हैं या आतंकवाद के साथ। और यह घोषणा उस अमेरिका के मुखिया ने की थी जो आतंकवाद का जनक रहा है। ठीक यही भाषा भारत के पहले साम्राज्यवादी हमलावर ब्राहमणवादी बोलते हैं कि या तो आप हमारे साथ हैं या आप हमारे शत्रुओं के साथ हैं। ऐसे प्रगतिशील जो बुशवादी भाषा बोलते हैं जाहिर है अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए जनवाद को सीमित करना चाहते हैं और जाहिर है यह फासीवाद की दस्तक ही है। 
अभी समाजिक न्याय की लड़ाई नये दौर में प्रवेश कर रही है और यह उदारवादी सामंतों की दया का इंतजार नही करेगी कि वो उदारवादी ब्राहमणवादी आयें और समाजिक न्याय के न्यायाधीश बने। उन प्रगतिशीलों का न्याय दलितों और अति पिछड़ों अथवा महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश तक ही सीमित है और क्या ही आश्चर्य है कि संघी ब्राहमणवाद भी जब उदार होता है तो यही करता है। सबको हिंदू बनाकर मंदिरों में प्रवेश दिलाकर वह समानता की लड़ाई नही ब्राहमणवाद को जिंदा रखने की साजिश को आगे बढ़ाना है। 
भाजपा ने लोकसभा चुनावों के दौरान सामाजिक न्याय और सामाजिक समरसता का नारा दिया था परंतु जब भी बहुजनों की हिस्सेदारी की बात होती है तो संघी सामाजिक समरसता खामोश हो जाती है। आज प्रगतिशील सामाजिक न्यायवादी भी सामाजिक न्याय का नारा बुलंद तो करते हैं परंतु जब बहुजन तबकों को प्रतिनिधित्व देने की बारी आती है तो सामाजिक न्याय की लड़ाई को जातिवादी प्रतिक्रियावाद और दक्षिणपंथी कहकर छोटा करने की कोशिश की जाती है। परंतु यह सही समय है कि देश का वामपंथ आज अपने सिमटते जानाधार का ईमानदार आंकलन और विश्लेषण करे। जो तबके कभी उसका बड़ा जानाधार बनाते थे वो उससे छिटक क्यों गये हैं। मगर ध्यान रहे केवल नकारात्मक टिप्पणी करना प्रतिक्रिया की राजनीति होता है। अपने दूर जाते स्वाभाविक तबकों की गति का ईमानदार विश्लेषण नही। हालांकि पिछले तीन दशक से वामपंथ इसी राह पर है राम मंदिर से लेकर मंडल कमण्ड़ल और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के विश्लेषण तक। हम केवल प्रतिक्रिया की राजनीति कर रहे हैं (प्रतिक्रिया की राजनीति, प्रतिक्रियावादी राजनीति नही)। 
सामाजिक न्याय की लड़ाई का यह चरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पुरानी सामाजिक न्याय की लड़ाई के सामने जहां समाजिक समानता से आगे आर्थिक समानता की लड़ाई की तरफ बढ़ने की आवश्यकता खड़ी है तो वहीं परंपरागत वामपंथी वर्गहीन समाज का विचार कुछ रूककर सामाजिक समानता के सवाल पर बोलने की आवश्यकता समझ रहा है। परंतु यदि लड़ाई केवल बोलने तक सीमित रहेगी तो देश का बहुजन समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आगे बढ़ेगा और नये वामपंथ का निर्माण करेगा। ऐसे वामपंथ का जो अधिक जनवादी होगा, सामाजिक समानता के सवालों के साथ राजनीतिक बाराबरी और आर्थिक विकास में हिस्सेदारी के संघर्षों के साथ। और अंतिम बात यह सर्टिफिकेट देने और हमेशा जजमेंटल रहने का कारोबार ब्राहमणवादी कारोबार है और इसे जो भी आगे बढ़ायेगा वह पकड़ा जायेगा। फर्क सिर्फ इतना होगा संघी कट्टरवादी ब्राहमणवादी कहलायेंगे और आप उदारवादी ब्राहमणवादी। जैसे जालिम सामंत और उदार सामंत
Mahesh Rathi

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