Wednesday 31 August 2016

वामदलों की संयुक्त रैली 9 नवम्बर को लखनऊ में ------ अरविंद राज स्वरूप



Arvind Raj Swarup Cpi

> जन समस्याओं को लेकर वामदलों की संयुक्त रैली 9
नवम्बर को लखनऊ में
> उ0प्र0 विधानसभा चुनाव में संयुक्त रूप से उतरेंगे
वामदल
>
> लखनऊ 30 अगस्त। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी,
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी),
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले-लिबरेशन),
एस0यू0सी0आई0 (सी0) तथा आर0एस0पी0 के राज्य
नेतृत्व ने आज माकपा कार्यालय पर संयुक्त प्रेस
वार्ता की।
> वार्ता में निम्न प्रेस नोट जारी किया गया:-
> उत्तर प्रदेश में 6 वामपंथी दलों ने अपनी संयुक्त
कार्यवाहियां सघन की हैं। केन्द्र सरकार द्वारा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किये गये हमले हों
अथवा उत्तर प्रदेश में सूखे की विभीषिका का
सुलगता सवाल, वामपंथी दलों ने संयुक्त रूप से सड़कों
पर उतर कर आवाज उठायी है। इन कार्यक्रमों की
फेहरिश्त लंबी है।
> गत तीन माह में वामपंथी दलों ने महंगाई,
बेरोजगारी, महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवायें,
भ्रष्टाचार, किसानों की दयनीय दशा और
आत्महत्यायें, सूखा और बाढ़ की त्रासदी, दलितों,
महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार तथा
साम्प्रदायिकता के सवाल पर कई संयुक्त सम्मेलन
आयोजित किये हैं। एक राज्य स्तरीय संयुक्त सम्मेलन
20 जून को लखनऊ में आयोजित किया गया तो 23
जुलाई को को मुजफ्फरनगर, 24 जुलाई को फैजाबाद
तथा 28 अगस्त को वाराणसी में सफल सम्मेलन किये
जा चुके हैं। अब 4 सितम्बर को मुरादाबाद तथा 10
सितम्बर को मथुरा में संयुक्त सम्मेलनों की तैयारी चल
रही है तथा अन्य पर विचार किया जा रहा है। सभी
सम्मेलनों में वामदलों का राज्य नेतृत्व भागीदारी कर
रहा है।
> आज यहां सम्पन्न वामदलों की संयुक्त बैठक का
निष्कर्ष है कि आर0एस0एस0 नियंत्रित केन्द्र की
सरकार पूरी तरह कारपोरेटों के हित में और आमजनों के
हितों के विरूद्ध काम कर रही है। अपनी
कारगुजारियों से उपजे जन असंतोष को भटकाने और
आर्थिक नव उदारवाद के एजेण्डे को मजबूती से लादने
को वह साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रही है।
> उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार भी अपने घोर
जनविरोधी एजेण्डे पर चलने के कारण हर मोर्चे पर पूरी
तरह विफल रही है। साम्प्रदायिकता से दृढ़ता से लड़ने
के बजाय वह अपने राजनीतिक हितों के लिए
साम्प्रदायिक शक्तियों से सांठगांठ बनाये हुए है।
मौजूदा साल में प्रदेश में हुए लगभग 200 छोटे बड़े
साम्प्रदायिक दंगे इसका जीता जागता उदाहरण हैं।
> वामपंथी दल इस बात से बेहद चिन्तित हैं कि इस
बीच केन्द्र सरकार भाजपा और संघ परिवार की शह
पर दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर हमलों में
तेजी आयी है तथा राज्य सरकार इनको रोकने में अपने
दायित्व का निर्वाह नहीं कर रही हैं।
> वामपंथी दलों ने संकल्प लिया है कि वे आने वाले
दिनों में देश व उत्तर प्रदेश की जनता के हित में अपने
आंदोलनों को और तेज धार देंगे।
> कमरतोड़ महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगी
पढ़ाई और महंगे इलाज, किसानों कामगारों की
बदहाली, सूखा/बाढ़ की त्रासदी, गन्ना किसानों
के चीनी मिलों पर बकाये का मय ब्याज फौरन
भुगतान, निजी कम्पनियों को सौंपी गयी बीमा
कम्पनियों द्वारा किसानों के साथ धोखाधड़ी,
महाजनी कर्ज की व्यवस्था पर रोक तथा सूखा और
बाढ़ पीड़ितों के कर्ज की माफी, पंगु बनी राशन
प्रणाली और उसमें गरीबों के साथ ठगी, सभी को
राशन एवं राशनकार्ड, दलितों, महिलाओं व
अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार और अत्याचारियों
को कड़ी सजा, सीलिंग और अवैध कमाई के बल पर
संचित जमीनों के अधिग्रहण और उसका दलितों और
अन्य भूमिहीनों में वितरण, सभी गरीबों को समुचित
आवास हेतु भूमि और धन का आवंटन, औद्योगिक,
असंगठित व खेत मजदूरों के अधिकारों की रक्षा तथा
साम्प्रदायिक शक्तियों की कारगुजारियों पर रोक
आदि सवालों पर स्थानीय स्तरों पर आन्दोलन तेज
किया जायेगा।
> इसके बाद 6 वामपंथी दल प्रदेश की राजधानी
लखनऊ में उपर्युक्त सवालों पर 9 नवम्बर को एक संयुक्त
रैली का आयेाजन करेंगे।
> वामपंथी दल चुनावों को भी जनता के मुद्दों पर
आन्दोलन के रूप में ही लड़ते हैं। 6 वामपंथी दलों ने उत्तर
प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों में मुद्दों के
आधार पर संयुक्त रूप से उतरने का निश्चय किया है।
> वामदल धर्मनिरपेक्ष व जनवादी ताकतों और आम
मतदाताओं से आग्रह करेंगे कि वे प्रदेश को दुर्दशा के
हालातों में पहुंचाने वाले, मुद्दाविहीन राजनीति
करने वाले, पूंजीवादी, जातिवादी, साम्प्रदायिक
और जनविरोधी दलों को परास्त करें और वामपंथ को
मजबूत करें। मुद्दों पर आधारित राजनीति ही प्रदेश
को मौजूदा दलदल, दल-बदल और धनबल से उबार सकती
है।
> वामपंथी दलों ने दो सितम्बर को अपनी मांगों के
लिए की जा रही मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक हड़ताल
को पूर्ण समर्थन प्रदान किया है और अपने
कार्यकर्ताओं व समर्थकों से आह्वान किया है कि वे
सड़कों पर उतर कर मेहनतकश वर्ग को समर्थन प्रदान करें.
प्रेस वार्ता में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश,
सहसचिव अर्विन्द्राज स्वरूप, माकपा राज्य सचिव
हीरालाल यादव, सचिव मंडल सदस्य दीनानाथ सिंह
यादव, भाकपा- माले के सचिव रामजी राय, अरुण
कुमार सिंह, फार्बर्ड ब्लाक सचिव एस.एन. सिंह,
एस.यू.आई. सी - के जगन्नाथ वर्मा शामिल थे.

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1788816421336488&set=a.1488613171356816.1073741825.100006244413046&type=3
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Madhuvandutt Chaturvedi
01-09-2016   
उत्तर प्रदेश में बिहार की तर्ज पर वाम मोर्चे को अकेले चुनाव लड़ने से कोई फायदा नहीं होगा । इस मामले में पंजाब में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने का फैसला विवेकपूर्ण है । यूपी में भाकपा को सीपीआई (एम) और सीपीआई (एम एल) की छाया से बाहर आकर स्वतंत्र निर्णय लेना चाहिए था ।

https://www.facebook.com/madhuvandutt/posts/998376373608429

मधुवन दत्त चतुर्वेदी जी का निष्कर्ष सटीक है किन्तु उन्होने इस बात पर ध्यान नहीं दिया है कि, यूपी में भाकपा  ब्राह्मणों  अथवा ब्राह्मण वादियों और विशेषतः एक ही परिवार के नियंत्रण में है। इसके सूत्रधार का मंत्र है कि, obc एवं  sc वर्ग के लोगों से सिर्फ काम लिया जाये उनको कोई पद न दिया जाये , वह 1994 से अब तक दो बार पार्टी को विभाजित भी करा चुके हैं तथा भाकपा प्रत्याशी रहे obc एवं  sc वर्ग के लोगों  को पार्टी छोडने पर मजबूर भी कर चुके हैं। ऐसे तत्व भीतर-भीतर फासिस्ट शक्तियों को लाभ पहुंचाते हैं । उनको हटाये बगैर भाकपा का भविष्य सुरक्शित नहीं हो सकता है। 
(विजय राजबली माथुर )

Wednesday 24 August 2016

एक न्याय संगत संवैधानिक प्रावधान है : “आरक्षण” ----- - मंजुल भारद्वाज

भावनाओं की राजनीति दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां का ब्रह्मास्त्र है  :
दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां सिर्फ़ और सिर्फ़ भावनाओं की राजनीति करती हैं . ये पार्टियां जनता की भावनाओं का राजनीतिकरण करती हैं . इनका हथियार हैं भावनाओं का दोहन . ये जन आस्था , धर्म ,राष्ट्रीयता , संस्कृति , संस्कार , सांस्कृतिक विरासत बचाने का दावा करती हैं , दम्भ भरती हैं और इन मुद्दों पर इनको जन समर्थन भी मिलता है पर दरअसल ये पार्टियां इन भावनात्मक मुद्दों का उपयोग अपने शुद्ध राजनैतिक फायदे के लिए करती हैं या यूँ कहें की इनके यही असली राजनैतिक मुद्दे हैं . ये मुद्दे ऐसे हैं जो जनता के करीब होते हैं या सामन्य भाषा में कहें की हर नागरिक के लिए एक तरह से गर्व के , सम्मान के प्रतीक होते हैं  और सामान्य नागरिक इसके बारे में ज्यादा सोचता नहीं हैं .
 देश को तोड़ने का खतरा  :
 दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां आस्था , धर्म ,राष्ट्रीयता , संस्कृति , संस्कार , सांस्कृतिक विरासत के मुद्दों का अति सरलीकरण करके जनता के सामने रखती है जैसे एक देश एक भाषा .वो जनता से पूछती है की अपना देश एक है तो भाषा एक होनी चाहिए की नहीं और जनता सरल और सीधा जवाब देती है हाँ एक देश है तो एक भाषा हो ..सवाल भी सरल और जवाब भी सरल ...वाह कितना आसान और सरल तरीका है देश में एक भाषा के फार्मूले का ये अति सरलीकरण ही इनका असली भावनात्मक खेल है ..आइये देखें इसे अपने भारत के व्यवहारिक आईने में ... भारत में हर चार कोस पर पानी और वाणी बदलती है तो क्या ऐसे में सब भाषाओँ का गला घोट दिया जाए ? अलग अलग भाषाओँ के बोलने वालों को डंडे के जोर पर एक ही भाषा बोलने के लिए मजबूर किया जाए ? और उनको डंडे के ज़ोर पर मजबूर किया गया तो देश का क्या होगा? ये ऐसे सवाल हैं जो मस्तिष्क में कौन्धतें हैं .. और हमारे सामने एक नया सवाल खड़ा करतें  हैं की क्या एक भाषा के लिए हम एक देश को तोड़ने का खतरा मोल ले सकते हैं? तो जवाब है भाषा से पहले देश और एक देश ...
राष्ट्रवादियों की प्रेरणा विदेशी है  :
अब आइये इन भावनाओं का व्यापार कर अपनी राजनीति चमकाने वालों के राष्ट्रवाद की प्रेरणा कहाँ से आती है . शुद्ध देसी , स्वदेशी , और राष्ट्रवादियों की प्रेरणा विदेशी है .. यूरोप के देशों की नकल है . यूरोप के देश विविधता और बहुलता को पचा नहीं पाये और उन्होंने इंसानियत का क़त्ल कर डंडे के जोर पर  ऐसे राष्ट्रों  का निर्माण किया . उन्हीं यूरोपीय देशों की नकल ये  दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां  कर रही हैं . अब सवाल ये है भारतीय परिवेश में ये विचार अमल में लाया जा सकता है ? आइये विचार करें .एक तो भारत मुट्ठी भर लोगों का देश नहीं हैं, १२५ करोड़ लोगों का देश है . भारत दुनिया का एक ऐसा देश है जो जैविक , भौगोलिक विविधताओं का विधाता है . कितने मौसम , ऋतुएं , रंग , भेष , बोली, भाषा हैं की ये जिस राष्ट्रवाद की कल्पना ये  दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां भारत में लाने और थोपने की बात कर रही हैं वो नामुमकिन और असम्भव है इसलिए हमारे राष्ट्र की नीव विविधता और बहुलता है !
दक्षिण पंथी कट्टरवादियों ने दरअसल युवाओं को बरगलाने का कामयाब षड्यंत्र रचा है . युवाओं के दिल को मैला किया है .. उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके तर्क , विचार करने की बौद्धिक क्षमता का ह्रास किया है , कुंद किया है और इस हद्द तक जहर घोला है की भारतीय संविधान के पवित्र सिद्धांतों के लगभग विरोध में युवाओं के दिल में जहर भरा है इसके उदहारण देखिये हाल ही में भारतीय विषमताओं में सामजिक न्याय और समता के लिए अनिवार्य एक पहल “आरक्षण” पर बवाल इस बात का प्रमाण है की सवर्ण जाति के युवा अपनी प्रगति में “आरक्षण’” को एक बाधा मानते हैं ... “आरक्षण” का उद्देश्य , उसके लाभार्थी , उसके सभी आयामों का शुद्ध तथ्यों के आधार पर विश्लेष्ण करने के बाद भी समझने को तैयार नहीं हैं ..इस हद्द तक मेरे देश के युवाओं के दिलों को मैला किया है की वो अपने तर्क और विवेक बुद्धि का उपयोग करने को तैयार नहीं हैं . वो जन्म के संयोग से ऊपर उठकर विचार करने की हालत में नहीं है की भारत जैसे देश में जहाँ जन्म के संयोग से बच्चों का भविष्य तय होता हो वहां “आरक्षण” एक न्याय संगत संवैधानिक प्रावधान है . ये  दक्षिण पंथी राजनैतिक पार्टियां नव आर्थिक उदारवाद के दौर में नए रोजगार के अवसर कैसे बढे , युवाओं को रोजगार कैसे उपलब्ध हों , सरकार नए रोजगार कैसे उपलब्ध कराये इस पर चर्चा नहीं करती क्योंकि उनको युवाओं के रोजगार में दिलचस्पी कम और जाति का सहारा लेकर विभिन्न जातियों को आपस में लड़ाने में ज्यादा रूचि  है जिससे ये अपने हिन्दुत्ववादी  एजेंडा लागू कर सकें  . अभी हाल ही में हरियाणा में हुई  हिंसा इसका प्रमाण है .गौर से देखिये इस किसान विरोधी सरकार को असल में किसानों की हालत बेहतर करने का काम करना था पर वो काम नहीं करके ..जो खेती पर आधारित हैं उन्हें आरक्षण  की होली में झोंक दिया . प्रश्न आरक्षण का नहीं है , असल प्रश्न यह है कि किसानों को ‘आरक्षण’ मांगने की ज़रूरत क्यों पड़ी ? खेती की ऐसी हालत क्यों हुई की किसान आत्म हत्या कर रहा है , युवाओं का कृषि को एक रोजगार एक रूप में अपनाने का रुझान कम है , क्यों एक ग्रामीण व्यवस्था वाले कृषि प्रधान देश में किसानों की ये हालत है ? अपने आप को छाती ठोक कर , आत्म घोषित राष्ट्र वादी पार्टी और उनकी सरकार अमेरिका के दवाब में डब्ल्यू टी ओ में किसान विरोधी करार पर साइन करती है और उसकी मंत्री संसद में बयान देती है ..” मज़बूरी थी जी करना पड़ा “ यही इन राष्ट्रवादी सरकार का असली चेहरा .. कथनी और करनी में कोई मेल नहीं ...यही नहीं ये देश की सम्प्रभुता के साथ खिलवाड़ करने का प्रमाण भी है .
देश के रचनात्मक निर्माण में  :
दरअसल हमारे युवा तकनीक के फीड का शिकार है , उसको जो फीड कर दिया जाए वही उसके लिए अंतिम सत्य है ..वो देश की नीतियों को  बस अपने निजी सुविधा के हित में देखता , सोचता और परखता है , उसके लिए देश का मतलब है बस उसका भला ... क्योंकि ये स म स SMS  जनरेशन नव उदार आर्थिक युग के दौर की पैदाइश हैं जहाँ विश्वविधालयों में विचार मंथन का दौर लगभग बंद  हो  गया है , सोशल मीडिया बस उपभोगता वाद का मात्र लाइक- डीस लाइक मंच है ऐसे में भारतीय युवाओं को अपने वैचारिक आधार को व्यापक बनाने के लिए अपने लिए नए संवाद मंच बनाने होंगें . जहाँ वो आस्था , धर्म ,राष्ट्रीयता , संस्कृति , संस्कार , सांस्कृतिक विरासत, सेकुलरवाद , लिंग समानता और सामाजिक , आर्थिक , सांस्कृतिक समता  के मुद्दों के  अति सरलीकरण के खेल को समझ सके . इन मुद्दों पर अपने विचार को स्पष्ट कर सके . दक्षिण पंथी कट्टरवादियों के झांसे  में ना आये और शुद्ध भावनाओं से देश के रचनात्मक निर्माण में अपना योगदान दे !

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संक्षिप्त परिचय -

“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता मंजुल भारद्वाज वह थिएटर शख्सियत हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार करते हैं, बल्कि अपने रंग विचार "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय करते हैं।

एक अभिनेता के रूप में उन्होंने 16000 से ज्यादा बार मंच से पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।लेखक-निर्देशक के तौर पर 28 से अधिक नाटकों का लेखन और निर्देशन किया है। फेसिलिटेटर के तौर पर इन्होंने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थियेटर ऑफ रेलेवेंस सिद्धांत के तहत 1000 से अधिक नाट्य कार्यशालाओं का संचालन किया है। वे रंगकर्म को जीवन की चुनौतियों के खिलाफ लड़ने वाला हथियार मानते हैं। मंजुल मुंबई में रहते हैं। उन्हें 09820391859 पर संपर्क किया जा सकता है।


संपर्क - मंजुल भारद्वाज .
373/ 18 , जलतरंग ,सेक्टर 3 , चारकोप ,कांदिवली (पश्चिम)  मुंबई -400067.
फोन : 9820391859

Friday 19 August 2016

गाँधी का मूल्याङ्कन करने में कम्युनिस्ट साथियों से भूल ------ मधुवनदत्त चतुर्वेदी

गाँधी का मूल्याङ्कन करने में कम्युनिस्ट साथियों से भूल हुई है । संघ से कदम ताल मिला कर गाँधी जी की निंदा करना उनके लिए नुकसान देह ही रहा है । गाँधी जी ने वोल्शेविज्म के आदर्श को नमन किया था , पर वे कम्युनिस्ट तो नहीं ही थे न । कम्युनिस्ट यदि दुनिया भर के मुक्ति संग्रामो और जनवादी क्रांतियो का मूल्याङ्कन करते वक्त उनके नेताओं को इसी कसौटी पर कसने लगें कि उनका कुल आचार-विचार रणनीति और लक्ष्य समाजवादी/कम्युनिस्ट क्रांति के अनुरूप था या नहीं तो फिर सबकी निंदा ही करते रहेंगे ।




Madhuvandutt Chaturvedi

गाँधी का मूल्याङ्कन करने में कम्युनिस्ट साथियों से भूल हुई है । संघ से कदम ताल मिला कर गाँधी जी की निंदा करना उनके लिए नुकसान देह ही रहा है । गाँधी जी ने वोल्शेविज्म के आदर्श को नमन किया था , पर वे कम्युनिस्ट तो नहीं ही थे न । कम्युनिस्ट यदि दुनिया भर के मुक्ति संग्रामो और जनवादी क्रांतियो का मूल्याङ्कन करते वक्त उनके नेताओं को इसी कसौटी पर कसने लगें कि उनका कुल आचार-विचार रणनीति और लक्ष्य समाजवादी/कम्युनिस्ट क्रांति के अनुरूप था या नहीं तो फिर सबकी निंदा ही करते रहेंगे । गाँधी से उन्होंने यही अपेक्षा की थी , जो गलत थी ।भारत के स्वतंत्रता संग्राम में समाज सुधार के कार्यक्रम और समान रूप से सामंतवाद विरोधी जनतान्त्रिक क्रांति को हम समुचित सम्मान नहीं दे सके हैं । ऐसा लगता है जैसे हम गाँधी पर इसलिए झुंझलाते हों कि गाँधी ने समाजवादी क्रांति क्यों नहीं की ।भाई , ये हमारा लक्ष्य है ,उनका नहीं न ।उन्होंने साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रिय आन्दोलन का नेतृत्व किया था और धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य के लिए अपेक्षित राष्ट्रीयता का विकास किया था । इस गणराज्य को फासिज्म की चुनौतियाँ तब भी स्पष्ट थीं और गाँधी- नेहरू ने यह पहचानी हुईं थी । समाजवादी क्रांति के लक्ष्य को आगे बढ़ाते हुए यदि हम फासिज्म की चुनौती का सामना करने के लिए गाँधी- नेहरु की चिन्ताओ में साझा होते रहते तो आज फासिस्ट प्रचारक गाँधी-नेहरु के प्रति युवकों को दुष्प्रचार से भ्रमित करने में सफल न होते ।


1942 August struggle and the communist party of india

by Dilip Bose
Forward By
C Rajeswara Rao

This is not the first time that the Quit India moment has been forked out to slander and attack the communist moment in our country. Whenever the ruling circles and reactionary vested interested are in the tight corner or the communist moment making headway, they would dig up old fables to whip up anti-communist prejudices.The pet theme is the so called ‘betrayal’ of the freedom struggle in 1942 by communist party of india. Such things happened a number of times in the past, even as late as in 1975,during the days of emergency imposed by Mrs Indira Gandhi.
Now extreme reaction is worried because of the forging of left unity through the united struggles of the toiling people and also its gathering round of democratic allies. Hence this resurrection of the ghost of 1942 once again by Arun shourie in order to isolate the communist moment by fanning anti – communism
Communists are second to none in their love for the motherland. Sometimes our path and tactics are differed from thoseof the leadership of the Congress. But that is another matter. We are also second to none in making sacrifices in the cause of the countries freedom and its advance. Because of this the communist moment in our country could attract ardent patriots and revolutionaries form all streams of the freedom moment, including the congress, some of whose names are mentioned in the booklet.
We are proud that we brought the organized movements of the workers, peasants, agricultural labourers, students , youth and women in to the freedom struggle
We are also proud that in the final phase of the freedom struggle, communist party of india led such revolutionary movements as the famous Telengana armed struggle, punnapra vayalar Armed struggle,in Kerala and Bombay textile workers in support of RIN mutiny, Nilgiri- Dhenkanal struggles in the former princely states of Orissa and the Banga Tegbhaga struggle in which over 5000 communists laid down their lives. In this way the CPI played its roll in the foiling the game of British imperialists and their stooges, the native princes, to balkanise our country by spilling the blood of heroic martyrs.

https://communistindian.wordpress.com/2016/03/15/1942-august-struggle-and-the-communist-party-of-india/ 

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निस्संदेह  कम्युनिस्टों का योगदान देश को आज़ादी दिलाने में अविस्मरणीय है। किन्तु बावजूद लेनिन व स्टालिन की उपयुक्त सलाह के भारतीय संदर्भों को न अपनाना तब भी और अब भी कम्युनिस्टों के विपरीत जा  रहा है जिसका पूरा-पूरा लाभ फासिस्ट साम्राज्यवादियो को मिलता रहा है। ब्राह्मण वादी कामरेड्स के कम्युनिस्ट पार्टियों  में नियंता होने का भी सम्पूर्ण लाभ फासिस्ट-साम्राज्यवादी ही उठा रहे हैं। 
(विजय राजबली माथुर )
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Saturday 13 August 2016

शिक्षा कोई घुड़दौड़ नहीं ------ राहिला परवीन



हाल ही में बिहार के शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा जो पूरे देश में चर्चा का विषय बना रहा.

बिहार टॉपर घोटाले का खुलासा होते ही सरकार के तरफ से कारवाई शुरू कर दी गई थी, जाँच कमिटी बनाई गई. सारे टॉप करने वाले छात्रों का फिर से टेस्ट लिया गया और जिन छात्रों के टॉप करने पर सवाल उठा था उन छात्रों को असफल पाए जाने पर उनके परीक्षाफल को रद्द भी कर दिया गया. आर्ट्स की टॉपर रूबी राय को हिरासत में ले कर क़ानूनी प्रक्रिया के तहत पूछताछ की गई. लेकिन इन सबके बीच ये सवाल कम नहीं हुआ कि बिहार की शिक्षा व्यवस्था इतनी लचर कैसे है? देश के चारों कोनों से ये आवाज़ आती रही की बिहार में बिना पढ़े कोई भी टॉप कर सकता है. इस तथ्य पर गौर किये बगैर  कि ,क्या बिहार में हर साल इसी तरह बच्चे टॉप करते हैं. बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर हर दूसरा आदमी अपनी निगेटिव राय रखने लगा है. जबकि पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था आज के दौर में खस्ता हाल की शिकार है. इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार का टॉपर घोटाला पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था पर काला धब्बा है. उसी समय गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के मामले भी सामने आए, जहां कहीं सौ नंबर

के पेपर में उससे ज्यादा मार्क्स दिए गए थे, तो मध्य प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था में घपला व्यापम के शक्ल में पूरे देश के सामने आ चुका है. जिसमें न सिर्फ डिग्रियां बेची गईं बल्कि इस घपले की जाँच करने वालों की जान भी ली गईं. सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम भी इस दिशा में कारवाई के रूप में नहीं उठाये गए. ऐसे हालात में क्या सिर्फ बिहार को निशाना बनना तर्कसंगत होगा? लेकिन इसके बावजूद बिहार में जिस तरह शिक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है उसे कत्तई सही नहीं ठहराया जा सकता. जो लोग इसके जिम्मेदार हैं उन्हें भारतीय क़ानून के तहत सज़ा होना चाहिए. जाँच में रूबी राय से पूछे जाने पर वह कहती है कि मैं कैसे टॉप की मुझे नहीं पता, मैंने बस इतना कहा था कि मुझे पास करवा देना. अब सवाल ये उठता हे कि कौन चाहता था कि रूबी राय और दूसरे फर्जी टॉपर टॉप करें. उनके मां-बाप या समाज का अपंग समाजिक ढांचा? जिसे झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा बहुत लुभाती है. परीक्षा चाहे जो भी हो उसमें परीक्षार्थी की सफलता सिर्फ मार्कशीट पर लिखे नंबर से ही तय होती है.

आख़िर ये मानसिकता कहाँ से पनपी? क्यों उन छात्रों के मां-बाप ने ये कदम उठाया? क्या ये सच नहीं कि इस तरह के अपराध के हम आदि हो गए हैं, हमें ये अपराध कभी अपराध लगता ही नहीं हैं. दौड़ में आगे वही जाता है जो तेज़ दौड़ता हो, जाहिर है जो बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं, जिन्हें सारी सुविधा मिली हो वो बेहतर कर पाएंगे. लेकिन हमें हमेशा ये याद रखना चाहिए कि शिक्षा कोई घुड़दौड़ नहीं. राज्य व केंद्रीय सरकार द्वारा समाजिक आर्थिक रूप से पिछड़ें बच्चों के लिए वो सारी सुविधा मुहैया कराना चाहिए जिससे कोई भी बच्चा अपनी मेहनत लगन से सफलता को हासिल कर पाए. इस पूरे घोटाले की प्रक्रिया में बोर्ड के वे सारे कर्मचारी भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने चंद पैसों के लिए देश की शिक्षा वयवस्था के साथ

खिलवाड़ किया. आज के दौर में पूरे देश में शिक्षा का व्यापारीकरण किया जा रहा है. देश के अंदर शिक्षा का जिस तरह निजीकरण हो रहा है ऐसे में शिक्षा कुछ ही लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है. सरकारी स्कूलों, कॉलेजों के स्तर को बेहतर बनाना जरूरी है. शिक्षा देश के हर बच्चों को देना राज्य की जिम्मेदारी होती है. इसके लिए केंद्र सरकार को भी मजबूत कदम उठाने होंगे. 


Friday 12 August 2016

देश को आज़ाद कराने वाला संगठन ए आई एस एफ ------ रोशन सुचान





Roshan Suchan
गंगा राम मेमोरियल हाल लखनऊ की ये तस्वीरें 12-13 अगस्त 1936 की हैं जिस दिन AISF की स्थापना हुई थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने समारोह का उद्घाटन किया और मुहम्मद अली जिन्नाह ने समापन भाषण दिया जो बाद में हिंदुस्तान  के प्रधानमंत्री   और पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने। महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सर तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुए। सम्मेलन में 11 प्रांतीय संगठनों और विश्वविद्यालयों से चुने हुए 936 प्रतिनिधि पहुंचे थे। AISF के इस स्थापना सम्मेलन में पी0एन0 भार्गव पहले महासचिव निर्वाचित हुए। पहली तस्वीर में चुने गए AISF के राष्ट्रीय नेता और दूसरी में उद्घाटन भाषण देते नेहरू और तीसरी में मुहम्मद अली जिन्नाह नज़र आ रहे है। याद रहे देश का पहला और एकमात्र राष्ट्रीय छात्र संगठन AISF था जिसने देश को आज़ाद करवाने के लिए विद्यार्थियों और नौजवानों को लामबंद किया ....
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